Saturday, April 11, 2020

लॉक-डाउन की सच्ची लघु-कथाएं : मैराथन हो सकती है जानलेवा

कोरोना का संकट सारी दुनिया को घेरे हुए है... हर देश, समाज, जमात और इंसान इस से अपने अपने तरीके से निपट रहा है... वास्तव में कोई इस संकट से सही मायनों में लड़ रहा है तो वो हैं हमारे डॉक्टर्स, सुरक्षाकर्मी (पुलिस), सफाई-कर्मी और रोज़मर्रा की ज़रूरतें आपको, हमको, सबको मुहैय्या कराने वाले हमारे फ़रिश्ते...

इन सब के अलावा तो सब अपनी अपनी लड़ाई लड़ रहे हैं... सबके अपने अपने दुःख हैं और उन से भी बढ़ कर अपने अपने दुखड़े... आज, 17 दिन के लॉक-डाउन के बाद, भारत का हर टीवी चैनल एक मेडिकल-साइंस चैनल है और पुराने, प्रतिष्ठित चैनल्स जैसे डिस्कवरी, नॅशनल जियोग्राफिक या बीबीसी अर्थ से काफी आगे निकल गया है. हमारे टीवी ऐंकर्स कोरोना के इतने बड़े विशेषज्ञ बन कर उभरे हैं जैसे हम सदियों से इस बीमारी से निपट रहे हैं... साथ ही, हमेशा की तरह, हर बिल्डिंग या सोसायटी में कम से कम एक बुज़ुर्ग टाइप के अंकल ज़रूर मिल जाएंगे जिन्होंने कोरोना को अपने सामने पैदा होते, खेलते और बड़े होते हुए देखा है और वो इस से अच्छी तरह से निपटना जानते हैं. उनके पास कोरोना के हर लक्षण के लिए कोई न कोई घरेलू नुस्खा होता है और उन्होंने अपनी जवानी से ले कर अब तक कई लोगों को इसी तरह के 'कोरोनामय' लक्षणों के लिए ठीक भी किया होता है... शुरूआती घबराहट के बाद अब लोगों ने धीरे धीरे कोरोना की विचलित कर देने वाली खबरों और लॉक-डाउन की बड़ी सच्चाई के साथ जीना सीख लिया है या कम से कम जीना सीखना शुरू तो कर ही दिया है.

इसी कड़ी में हमारे ध्यान-खेंचू (Attention-Seeking), स्वघोषित सेलेब्रिटीज़ ने सोशल-मीडिया का शोषण ज़ोर-शोर से शुरू कर दिया है. कोई झाड़ू लगा रहा है, कोई बर्तन धो रहा है, कोई खाना पका रहा है और हम सब 'फैंस' से उम्मीद लगा के बैठा है कि हम झट से उनकी Posts को Like या retweet करेंगे और उसके नीचे बड़े बड़े 'Wow' या 💖 के इमोजी से प्रतिक्रिया देंगे...इसके अलावा एक बहुत बड़ा तबका रोज़ाना अपने व्यायाम करते हुए वीडियो डालता है... आप एक बार तो सोचने को मजबूर ही हो जाते हैं की ये एक फिल्म या टीवी के कलाकार हैं या कोई Gym-Instructor? कई सेलेब्रिटीज़ अचानक से हम सब को योग सिखाने लगे हैं और शुरुआत ही सीधे, कठिनतम, बकासन से कर रहे हैं... कुछ का कहना है कि वो अपनी बिल्डिंग की छत पर ही जॉगिंग या ब्रिस्क-वॉक कर रहे हैं... ये सब देख सुन कर कभी कभी तो ऐसा लगने लगता है जैसे सिर्फ हम ही निठल्ले हैं और गुपचुप तरीके से इस लॉक-डाउन का मज़ा उठा रहे हैं, सिर्फ टीवी या इंटरनेट पर ही समय व्यतीत कर रहे हैं.... चूँकि प्रधानमंत्री जी ने कह भी दिया है कि घर पर बैठना ही आज के समय में सच्ची देश सेवा है, हम खुद को और घर वालों को तसल्ली देते नहीं थक रहे कि 'देश सेवा चल रही है....ये आलस नहीं है'.

.. तमाम सोशल-मीडिया पर बिखरे पड़े वीडियो और चित्रों को देखने और सुनने के बाद, अपराध बोध से ग्रस्त, मैंने भी अपने लिए 'उचित' गृह-कार्य ढूंढना शुरू किया...बर्तन मांजने, झाड़ू-पोंछा करने, पंखों की सफाई, घर के पर्दे बदलने इत्यादि जैसे महत्वपूर्ण कार्यों में से एक पर मैं लक्ष्य साधने को ही था कि पार्श्व में आवाज़ गूंजी..."चावल में तिलूले पड़ रहे हैं... इनको ज़रा धूप दिखाओ... ये कोरोना के चक्कर में सामान ला ला कर भर लिया है, अब कीड़े पड़ रहे हैं... कब तक संभाल के रखेंगे..." जो नहीं जानते, 'तिलूले' लम्बे समय तक बिना उपयोग किये गए चावल या अन्य अनाजों में पैदा हुए सबसे सामान्य कीड़े हैं जो 'बीटल' परिवार के कीट हैं मनुष्यों एवं जानवरों के लिए हानिकारक नहीं हैं. इनका अंग्रेजी नाम Weevil है... और जिनका आपके अनाज में होना इस बात का द्योतक है कि आपके अनाज में किसी हानिकारक कीटनाशक का प्रयोग नहीं किया गया है और गला फ़ाड़-फ़ाड़ के 'ऑर्गेनिक' चिल्लाने वाले आपके सुपरमार्केट ने आपको वास्तव में 'ऑर्गेनिक' उत्पाद दिया है (ये ज्ञान, गूगल पर उपलब्ध स्रोतों से प्रतुत है).

बहरहाल, लॉक-डाउन के चक्कर में दाल-चावल ज़्यादा ही स्टॉक कर लिया है. वैसे लॉक-डाउन की आड़ में ये बार-बार किराना ना लेने जाने की छोटी-मोटी कोशिश भी थी...घर में स्टॉक ज़्यादा पड़ा है और ये सोशल-मीडिआ वाले सेलेब्रिटीज़ खाने पर रोक लगाने पर तुले हुए हैं... अगर आप नियमित दिनचर्या का पालन नहीं कर रहे, तो सुबह-शाम नाश्ते में कटौती कीजिये...दिन के खाने में और रात के डिनर में एक-एक रोटी कम  कर दीजिये... अगर व्यायाम नहीं कर कर रहे हैं तो चावल खाने पर कुछ दिन रोक लगाइये... अनाज का सेवन कम कीजिये, हरी सब्ज़ियां और फल ज़्यादा खाइये...अरे हुज़ूर, जो स्टॉक में है वो खाने नहीं दे रहे, जो खाने का सुझाव दे रहे हो वो न तो अब (17 -18 दिन बाद) स्टॉक में बचा है और (लॉक-डाउन के चलते) ना बाहर जाने दे रहे हो... ख़ैर, पार्श्व की वो आवाज़ अब आदेश में बदल चुकी थी..."धूप चली जाएगी...तब रखोगे क्या चावल धूप में?...प्रधानमंत्री जी ने घर में रहने को कहा है, ये नहीं कहा कोई काम नहीं करोगे!"

बे मन से उठते हुए मैंने चावल का डब्बा एक हाथ में उठाया और दूसरे में घर में उपलब्ध सबसे बड़ा थाल...और चल पड़ा धूप में तिलूलों का विनाश करने... बहुत दिनों बाद कोई काम हाथ में लिया था, लग रहा था हाथ में तलवार और ढाल है और आज दुनिया ही बदल दूंगा... घर की लगभग आधी बालकनी में अभी भी धूप बची थी पर वो भी निरंतर पीछे सरकती जा रही थी... मैंने डब्बे के चावल उड़ेले और धूप को पकड़ने की कोशिश करते हुए, थाल बची हुई तेज़ धूप में रख दिया...चूँकि आजकल समय की कोई कमी नहीं है, मैं वहीँ छाया में ये प्रयोग देखने बैठ गया की धूप में ये तिलूले चावल को कैसे छोड़ भागते हैं? 4-5 मिनिट में ही सफ़ेद-सफ़ेद चावल में ज़ीरे सामान एक्के-दुक्के तिलूले नज़र आने लगे...धूप में उनकी बेचैनी नज़र आ रही थी...मैं बैठा-बैठा उनकी अगली प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा करने लगा...कुछ अति-उत्साहित, और संभवतः नयी-नयी बाइक खरीदे हुए, तिलूले सबसे पहले सरपट भागते हुए थाल की किनार पर इकट्ठा होने लगे...मेरी जिज्ञासा निरंतर बढ़ती जा रही थी... इतने में ही बाकी, थोड़े समझदार टाइप, संभवतः अधेड़ उम्र के तिलूले भी युवाओं के पीछे हो लिए...मैं अब थोड़ा हतप्रभ था...ये सब भाग क्यों रहे हैं? किस से भाग रहे हैं? भाग कर जाने कहाँ वाले हैं? इत्यादि इत्यादि प्रश्न मन में उठना स्वाभाविक थे...बस चावल थाल में निकाल कर धूप में रखे, कोई दवा नहीं डाली पर एक एक कर के सारे तिलूले चावल में से निकल कर भागे और....देखते ही देखते तिलूलों की पहली खेप थाल से कुछ दूर जा कर अचानक रुक गयी... कोई हरकत नहीं, कोई हलचल नहीं...धीरे-धीरे पीछे से आते हुए तिलूले भी रुकते जा रहे थे...मेरा आश्चर्यचकित होना स्वाभाविक था...नज़दीक से विश्लेषण करने पर ज्ञात हुआ, सब मर चुके थे!!.... पर कैसे? कुछ किया ही नहीं, कोई दवा नहीं डाली तो कैसे मरे?...मैं 15-20 मिनट ध्यान से देखता रहा तो समझ आया कि ये सब तिलूले असल में थकान से मरते गए... ज़िन्दगी भर बेचारे अपने छोटे से डब्बे या पैकेट के अंदर घूमते रहते, दौड़ते रहते....थोड़ी सी धूप लगते ही, किसी ज्ञानी तिलूले ने उकसाया होगा, "कुछ नहीं होगा...समय भी खूब है,  जगह भी खूब है, करने को कुछ नहीं...चलो 'फिट' रहने के लिए दौड़ लगाते हैं....बस सब निकल पड़े मैराथन पर... जिन लोगों ने ज़िन्दगी भर 50 मीटर रेस भी नहीं दौड़ी थी, सीधे मैराथन पर निकल पड़े.... और क्या होता? रास्ते में थक कर मरना ही था.

मेरी जैसे आँखें ही खुल गयीं..... जब आपने ज़िन्दगी भर कोई कसरत, व्यायाम या योग नहीं किया है, तो इस लॉक-डाउन में कृपया अचानक से किसी सेलेब्रिटी को instagram या tiktok पर देख कर अनावश्यक अपराध-बोध से ग्रस्त होने से बचें... मन की हीन भावना को शरीर की लाचारी पर कदाचित हावी मत होने दें... कुछ ना समझ आये तो पलंग की चादर ठीक-ठाक कीजिये, रिमोट पर कब्ज़ा कीजिये, तकिया लगाइये, पैरों को लम्बा कीजिये ... और शुरू हो जाईये... इधर-उधर 2 -4  किलो बढ़ जाएंगे तो चलेगा... जान है तो जहान है...याद रखिये, आप इंसान हैं, तिलूले नहीं.

Friday, August 14, 2015

मुंबई से पुणे

"चैन से सोना है तो जाग जाइए" ....वैसे तो सोने की ऊपर-नीचे होती  कीमतों ने चैन से सोना लगभग दूभर ही कर दिया है पर शनिवार 18 जुलाई 2015 की उस अलस्सुबह मैं लगभग साढ़े चार बजे जाग ही गया. पुणे में मेरी चचेरी बहन की लड़की, चिकि, की सगाई में जो शामिल होना था. संभवतः मेरी दीदी और जीजाजी पहली मर्तबा मुबई से पुणे जाते हुए, 'नीता वोल्वो' की अगल-बगल की सीटों पर लोनावला में ही मिले थे... और अपनी बड़ी बेटी का नाम उन्होंने 'चिकि' रख दिया (How Sweet... & Crunchy naa!!). बहरहाल, भान्जी की सगाई में शामिल होने के लिए मैं, गोपाल गौतम, सुबह 8.40 की 'उद्यान-एक्सप्रेस' पकड़ने मुंबई छत्रपति शिवाजी स्टेशन पहुँच गया.

ट्रेन में confirm टिकट मिल जाना अभी भी हम भारतीय लोगों के लिए किसी उपलब्धि से कम नहीं है. ट्रेन-कोच के बाहर चिपके, dot-matrix -printer के उस print -out में अपना नाम और उम्र दिखना सचमुच काफी सुकून देता है. लिस्ट में 'गोपाल गौतम, 24, पुरुष' देख कर मैं इत्मीनान से S-3 कोच में दाखिल हुआ और अपनी सीट 10 (Middle-Berth) पर जा कर बैठ गया... फिर यकायक मन में आया की देखूं तो इस सफ़र में मेरे हमसफ़र कौन कौन हैं. मैं उठा और कोच के बाहर लगी लिस्ट को ध्यान से पढ़ने लगा :

९.   बलवंत शर्मा .............. 46  ..... पुरुष
१०. गोपाल गौतम .............24  ..... पुरुष
११. योगेश म्हात्रे ............... 39  .....पुरुष
१२.  सुधा योगेश म्हात्रे ...... 35  ..... स्त्री
१३. ममता चतुर्वेदी ........... 29 ...... स्त्री
१४. वर्षा दुबे ......................23 ...... स्त्री

ख़ैर... गोपाल गौतम लिस्ट देख कर अपनी सीट पर आ कर बैठ गया और अपने सह-यात्रियों का इंतज़ार करने लगा. जैसे-जैसे गाड़ी चलने का समय नज़दीक आता गया, लोग आ कर बैठने लगे. गोपाल के सह-यात्री लगभग उसी क्रम में आये जिस क्रम में शायद वे दुनिया में आये होंगे. बलवंत शर्मा शायद कहीं विदेश से लौटे थे , वो अपने नए नए हासिल 'एक्सेंट'  को अन्य यात्रियों के दिमाग में और वो २५-२५ किलो के दो बड़े-बड़े सूटकेस को बर्थ के नीचे जबरन घुसेड़ने की कोशिश कर रहे थे. फिर म्हात्रे मियाँ-बीवी पहुंचे. पहुँचते ही म्हात्रे साब ने मुझे टार्गेट किया - "आप अकेले हैं तो बर्थ एक्सचेंज कर लेंगे क्या?"... फिर उनको अचानक अहसास हुआ की बीवी की तो Lower बर्थ है, वो भी हाथ से जाएगी. तुरंत ही बीवी से मुख़ातिब हो बोले, "अरे आमने-सामने की तो हैं ही, तुम क्यों परेशां हो रही हो?"... गाड़ी लगभग चलने को ही थी की 'चिंटू' भागता हुआ आया... और सामने वाली बर्थ पर खिड़की की तरफ बैठ गया (जो श्रीमती म्हात्रे की थी) इधर उसके सामने वाली खिड़की पर मैंने कब्ज़ा कर रखा था (बर्थ हालाँकि शर्मा जी की थी पर उन्होंने एक दानवीर NRI की तरह उदारता का परिचय देते हुए मुझे दे दी थी)... किसी तरह एक बड़े से बेडौल बैग को घसीटते हुए, एक हाथ मैं टिकट निकाले, कंधे पर हैण्ड-बैग टाँगे और निरंतर "चिंटू.. चिंटू...... देखो भाग रहे हो न... बिलकुल नहीं सुन रहे हो न हमारी..." आदि कहते कहते चिंटू की मम्मी - ममता चतुर्वेदी का आगमन हुआ, उनके बिलकुल पीछे ही- मुस्कुराती हुई, एक हाथ में Bisleri की बोतल और दुसरे में एक बैग लिए वर्षा जी खड़ी थी. उन दोनों को देखते ही चिंटू बोला, "मौसी... खिड़की के पास मैं बैठूँगा!". सब मौसी की तरफ देख रहे थे. ममता जी की बहन और चिंटू की मौसी, वर्षा.

ट्रेन नियत समय पर चल पड़ी. श्रीमती म्हात्रे, जिनकी सीट पर चिंटू ने कब्ज़ा कर रखा था, बोल ही पड़ी, "आप लोगों की तो मिडिल और ऊपर की बर्थ है ना? ". मैं जैसे मौके का इंतज़ार ही कर रहा था... मैंने तपाक से कहा... "...हाँ... हाँ, इधर आ जाओ चिंटू... इस खिड़की पर बैठ जाओ.."....चिंटू बोला, " थैंक यू, भैय्या... मौसी तुम भी इधर आ जाओ ना". मैं मन ही मन बुदबुदाया, "थैंक यू, चिंटू!"... "हाँ ..... हाँ.... मौसी, आप भी इधर ही आ जाओ ना, जगह है इधर!". वर्षा झेंपते हुए बोली, "मैं चिंटू की मौसी हूँ!"...और वो उठ कर इधर मेरी बगल में चिंटू के पास आ कर बैठ गयी. इए बर्थ पर अब जगह थोड़ी कम पड़ रही थी, पर हम भारतियों को तो आभाव में जीने की जैसे आदत ही है - मैं, शर्मा जी और म्हात्रे जी अब भी मुस्कुरा रहे थे. म्हात्रे जी की धर्मपत्नी, सुधा, जो सामने ही बैठी थी, उनको म्हात्रे जी का वर्षा जी पर टकटकी लगाये मुस्कुराना शायद बर्दाश्त नहीं हुआ और १० बेचैनी भरे मिनिट के बाद वो फट पड़ी, "अरे ... सब लोग उधर ही बैठोगे क्या?... आप इस तरफ क्यों नहीं आ जाते?" म्हात्रे जी के पास कोई जवाब नहीं था, बेचारे उठ कर सामने वाली बर्थ पर जा बैठे. अपनी झेंप छुपाते हुए वो बोले, '' हाँ भाई चिंटू, तो तुम्हारा नाम क्या है?" चिंटू अपने रेट-रटाये लहजे में बोल पड़ा, "My name is Chinmay Chaturvedi... Father's name Mr Harish Chaturvedi... Mother's name Mrs Mamta Chaturvedi..." मेरे बगल में बैठे शर्मा जी जो अब तक Foreign-returned-sophistication का लबादा ओढ़े हुए थे अपने आप को रोक नहीं सके, "... और मौसी जी का नाम बेटा?"... और मैं अब तक सोच रहा था, इन ६ बर्थ में मुझे कोई competition ही नहीं है..."अरे अंकल, मौसी का नाम तो वर्षा दुबे है ना"... तभी चिंटू की मम्मी, ममता जी कूद पड़ीं, "हमारी वर्षा अभी बी.कॉम. III Year में पढ़ रही है, हमेशा से 1st Division आयी है, १-२ साल में इसकी भी शादी करनी ही है, हम लोग सरयूपारी ब्राह्मण हैं, ... वैसे आप लोग कहाँ के रहने वाले हैं, शर्मा जी?" मैं, गोपाल गौतम, जो अभी तक अपने आप को सबसे योग्य वर समझ रहा था, चुपचाप बैठा सबके मुँह देख रहा था... अपनी बीवी की घूरती नज़रों से बचते हुए म्हात्रे जी ध्यानाकर्षण प्रस्ताव लाये... "... वैसे ममता जी आप पहली बार ही पुणे जा रही हैं ना...  ये बहुत ही खूबसूरत रास्ता है... और हाँ रास्ते में कर्जत का वडा-पाव ज़रूर चाखियेगा"... शर्माजी ने भी ज़ोर से हाँ में हाँ मिलाई... ममता जी तुरंत बोली,"अरे वडा-पाव तो हमारे चिंटू का favorite है भाई... हाँ वर्षा को उतना पसंद नहीं है... वो इन लोगों के आजकल पिम्पल-विम्पल के बहुत लफड़े रहते हैं ना ". अपनी महत्ता और ज्ञान का परिचय देते हुए मैं, थोड़ा सा सीना चौड़ा करते हुए और वर्षा जी की तरफ देखता हुआ बोला - ये ट्रेन कर्जत रूकती ही नहीं है. सुपरफास्ट है! ... म्हात्रे जी की एक बार और कट गयी... उन्होंने बची-खुची इज्ज़त समेटते हुए ऐलान किया ... अच्छा, लोनावला का वडा-पाव भी ठीक है... चलो फिर सब लोनावला आने पर ही वडा-पाव खायेंगे...

बहरहाल, ट्रेन कोंकण-रेल्वे के अपने सफ़र पर आगे बढ़ती जा रही थी. अभी-अभी 'कल्याण जंक्शन' निकला था और सब पुणे जा रहे थे पर म्हात्रे जी पुणे से ज्यादा शायद लोनावला का इंतज़ार कर रहे थे ..."सुधा, लोनावला 10.30 तक आ जायेगा.." उनकी बेचैनी को ले कर उनकी धर्मपत्नी ज़्यादा बेचैन थीं. तीनों मर्दों की अवस्था लगभग एक जैसी ही थी - तीनों विश्व की तमाम समस्याओं को छोड़ वडा-पाव पर ध्यान लगाये हुए थे। सारी प्रतियोगिता इसी में थी की वर्षा जी को वडा-पाव कौन खिलायेगा। मुझे भी बेचैनी थी की लोनावला आज शायद किसी ने आगे खिसका दिया है.....आता ही नहीं दिख रहा!...

... तभी ट्रेन एक Tunnel में दाखिल हुई.... "भू s s s ....त ....." चिंटू चीखा...."चिंटू .... पागल हो क्या?...मैं डर गयी ना…" चीखती हुई वर्षा चिंटू से ही चिपक गयी .... मैंने भी चिंटू को समझाइश देते हुए कहा "...नहीं बेटा .... ऐसा नहीं करते ..." पर अन्दर ही अन्दर कोंकण रेल्वे की मुंबई-पुणे के बीच बनी 8 -10 tunnels में से अगली Tunnel का बेसब्री से इंतज़ार करने लगा...चिंटू भी शायद अगली Tunnel का इंतज़ार कर रहा था .... मैंने बात आगे बढाई ..."किस क्लास में पढ़ते हो भाई चिंटू ?" वर्षा जी ने दखल दिया "... 2nd में आ गया है…पर पढ़ता कहाँ है ये!..." मैंने भी एक क़दम आगे बढ़ाते हुए कहा "अरे...मौसीजी आप पढ़ाएंगी तो क्यूँ नहीं पढ़ेगा ?" चिंटू की मम्मी, ममता जी जो अब तक श्रीमती म्हात्रे से एकता कपूर के टीवी सीरिअल्स डिस्कस कर रही थीं, हमारी 'आपसी' परिचर्चा में कूद पड़ीं "... अरे ये बहुत बदमाश हो गया है… इस बेचारी की सुनता है क्या?"...वो दोबारा 'बालिका-वधु' में तल्लीन हो गयीं। हम लोग चिंटू के बहाने एक दूसरे को जानने में लग गए। "आप कहीं Job क्यूँ नहीं शुरू कर देतीं ?"...वर्षा जी बोलने लगीं "...मैं तो दीदी के कब से पीछे पड़ी हूँ ... पर ये बोलतीं हैं पहले शादी कर लो फिर जो जहाँ करना है, करना ..." बातों-बातों में अचानक घुप्प अँधेरा छा गया ... चिंटू चीखा "Tunnnnellllllllllll....." और वर्षा जी इस बार चिंटू की बजाय मेरी तरफ सिमट गयीं। मैं मन ही मन बोल रहा था "Thank you , Konkan Railway"... पर Tunnel उम्मीद से बहुत छोटी निकली ... वर्षा जी को पूरा डरने का मौका ही नहीं मिला, और ना ही मुझे संभालने का। फिर भी मैं माहौल कायम रखने के लिए बोले जा रहा थ… "रास्ते में अभी कई और Tunnels हैं ....और कुछ तो बहुत लम्बी और अँधेरी हैं…" शर्मा और म्हात्रे जी धीरे-धीरे कमोबेश ये स्वीकार करने लगे थे की वर्षा जी मुझ से दुनिया की समस्याओं पर चर्चा करने में तल्लीन हैं। ममता और सुधा जी भी उनको एकता कपूर के साथ बाँधे हुए थीं। ट्रेन धडधडाते हुए आगे बढ़ती जा रही थी - सब अपने अपने इंतज़ार में मशगूल थे - पुणे का शायद सभी कम ही इंतज़ार कर रहे थे। मैंने बात आगे बढ़ाई, "... पुणे जाने का सारा मज़ा रास्ते का ही है .... कर्जत का वड़ा-पाव, लोनावला की चिक्की ...."

वर्षा जी ने सफ़ाई दी ,"… पर मुझे मीठा ज़्यादा पसंद नहीं है", चिंटू ने भी हाँ में हाँ मिलाई, "मीठा ज़्यादा खाने से दांत में कीड़ा लग जाता है ना, मौसी?"… मैं भी कहाँ चूकने वाला था,मैंने भी जोड़ दिया "हाँ, हाँ.… मीठा खाने से मोटे भी होते हैं".... म्हात्रे जी से मेरा ज्ञान (और उस से ज़्यादा, मेरी बढ़ती नज़दीकी) शायद बर्दाश्त नहीं हो रहा था. वो फिर कूद पड़े, "अरे भाई, मोटे तो आप नमकीन या तला हुआ खा कर भी हो सकते हैं …मीठा बेवजह बदनाम है". श्रीमती म्हात्रे ने भवें तानते हुए मराठी में कुछ बुदबुदाया और झिड़क के बोलीं, "आप अपने आप को देखिये, हवा भो खाते हैं तो मोटे हो जाते हैं.…" इसके पहले की ममता जी और वर्षा उनके पेट (तोंद) की तरफ देखती, म्हात्रे जी ने साँस खींचते हुए पेट अंदर लिया और दलील दी "अरे भाई, हमारा पेट तो Genetic है…हमारे पिताजी और दादाजी के भी पेट निकले हुए थे". मुझे थोड़ा मौका मिल गया. ये भांपते हुए की म्हात्रे जी को Competition से हटाने का ये एक मौका है, मैंने भी व्यंग्य किया "सर, उम्र के साथ भी पेट बाहर आ ही जाता है". हमारी संस्कृति में पत्नी को आखिर धर्म-पत्नी यूँ ही नहीं कहा जाता, श्रीमती म्हात्रे ने पत्नी-धर्म निभाते हुए संभाला, "हाँ, ये ठीक कह रहे हैं, इनका थोड़ा पेट तो हमारी शादी में ही निकला हुआ था.… ये इनके परिवार में ही है". वर्षा जी की हंसी फूट पड़ी. हम तीनों मर्दों का साथ में हंसना स्वाभाविक था. शर्मा जी जो अब तक सब सुन रहे थे, ज़्यादा ही ज़ोर से हंस पड़े और उन्होंने भी एक झटका दिया "पर भाई, अमेरिका में लोग बहुत Conscious हैं, आपको बहुत काम लोगों की तोंद दिखेगी". फिर उनको शायद अपनी भी तोंद का अहसास हुआ,"अरे भाई, पर वो भी कोई खाना है क्या....बस उबला हुआ,ना तेल ना मसाले....मरीज़ों का खाना होता है वहाँ". सब ने सांत्वना देते हुए हाँ में हाँ मिलायी।

तभी ट्रेन लोनावला पहुँच गयी. श्रीमती म्हात्रे को अनदेखा करते हुए, म्हात्रे जी ने ऐलान किया "वडा-पाव कौन कौन खायेगा?". चूँकि शर्मा जी ये मौका चूक गए थे,उन्होंने मेरी अधीरता को सहारा दिया "अरे भाई म्हात्रे जी, अब आप कहाँ जाएंगे.... ट्रेन यहां ज़्यादा रूकती नहीं है…ये जवां लोगों को जाने दीजिये…ये लो भाई गौतम, 12 वडा-पाव ले आओ" मैंने व्यंग्य करते हुए वर्षा जी को छेड़ा "अच्छा, चिंटू और मौसी के लिए एक-एक…हाँ भाई मौसी का पिम्पल-विम्पल का भी चक्कर है" तीर निशाने की तरफ बढ़ चला था…वर्षा जी झेंपते-मुस्कुराते हुए बोलीं "नहीं ऐसी कोई बात नहीं है… बस अभी ज़्यादा भूख नहीं है." मैंने भी ज़्यादा वक़्त ना बर्बाद करते हुए, स्टेशन पर एक वडा-पाव वाले का रुख किया … 3-4 मिनिट में मैं गरम-गरम वडा-पाव के साथ वापस ट्रेन में था. ममता जी ने सबको एक-एक वडा-पाव बाँटा…इस बीच वर्षा जी,  मौका देख कर, अपने मोबाइल से चिपक गयीं....शर्मा जी ने अनौपचारिक होने की कोशिश की "… अरे वर्षा जी, लीजिये…ठन्डे हो जाएंगे…गोपाल बहुत बढ़िया वडा-पाव लाये हैं" मुझे लगा जैसे मैंने Olympic में मेडल जीत लिया, थोड़ी विनयशीलता (Modesty) दिखाते हुए मैंने छेड़ा "अरे अंकल,हम तो जो मिल रहे थे वही लाए हैं पर वर्षा जी को फुर्सत कहाँ है अपने मोबाइल से!!". ममता जी ने भी कटाक्ष किया "आजकल दिनभर बस मोबाइल से ही चिपकी रहती है...वही सब Facebook, Whatsapp वगैरह दिन भर.…" म्हात्रे जी की जिज्ञासा फिर जागी "अरे वर्षा जी, आप Whatsapp पर हैं क्या?… ज़रा हमको Add कीजिये....हमारा नंबर है 9243XXXXX6.... आपका नंबर बोलिए?" वर्षा जी अभी तक ढंग से झिझक भी नहीं पायीं थीं कि चिंटू तपाक से बोल पड़ा "अच्छा मौसी का नंबर?.... मौसी का नंबर है 9857xxxxx8" मैंने, शर्मा जी और म्हात्रे जी ने फ़टाफ़ट वर्षा जी को Add किया और मन ही मन चिंटू के प्रति 'धन्यवाद प्रस्ताव' पारित किया। उतावलेपन में म्हात्रे जी मेरे 'मन की बात' कह गए "चलो अच्छा है, वर्षा जी से Whatsapp पर भी जुड़े रहेंगे …ऐसे ही तो दोस्ती हो जाती है". सुनते ही श्रीमती म्हात्रे ने म्हात्रे जी को घूरा और म्हात्रे जी चिंटू को छेड़ने लगे.

मैंने फ़टाफ़ट यार-दोस्तों के पुराने Messages से कुछ शेर-शायरी खंगालना शुरू किया और वर्षा जी की Whatsapp Profile की तरफ़ 'भागा'… उनका Status Message था "With 3 Jokers in Train...Romantic Weather,Missing u my love (Rohan)"........की.… ई ई ई ई ई …च च च.… की आवाज़ करते हुए ट्रेन अचानक ही रुकने लगी. मैं, शर्मा जी और म्हात्रे जी एक साथ बोल पड़े "अरे, शायद किसी ने चेन खींच दी है!!!" वर्षा जी की दीदी, ममता जी ने टोका "अरे भाई, पुणे आ गया है, ट्रेन स्टेशन पहुंच रही है"

मन मसोस कर मैंने अपने आप को दिलासा दी "अच्छा हुआ, समय से पुणे आ गया"            

Wednesday, May 16, 2012

गर्मियां ..... और यादें

सड़क किनारे ठेले पर, गुनिया
रंगीन बोतलें सजाने लगी है
गीले टाट से ढकी बर्फ की
सिल्लियाँ अब नज़र आने लगी हैं
चिलचिलाती धूप से बच कर 
बबूल की छाँव भी सुहाने लगी है 
नारियल-पानी वाले की ठिलिया पर 
ज़्यादा भीड़ मंडराने लगी है 
गन्ने के रस की वो दुकानें, 
जो साल भर ऊंघती रहती हैं, 
अब सज-संवर इतराने लगी हैं 
'हनुमान की लस्सी' भी जैसे 
लोटे से मचल कर बाहर आने लगी है 
दिन-भर सब जिसका इंतज़ार करते हैं  
वो शाम ज़्यादा तरसाने लगी है

अब जो बड़ा होता जा रहा हूँ तो,
बचपन की गर्मियां याद आने लगी हैं
दिनभर चित्र-कथाओं का संग 
हाथों में बस 'रसना' का रंग 
और सब बच्चे-बूढों का हुडदंग 
पेड़ों पर की कच्ची कैरी, नमक-लाल मिर्च की चोरी 
मेरी प्यारी-प्यारी मौसी, बारी-बारी चटाने लगी है    
दादा-दादी के साथ रातों को खाई कुल्फी 
होठों पर फिर चिपचिपाने लगी है 
रात-रानी की खुशबु और ठंडी-ठंडी चादरों पर
सितारों की मच्छर-दानी लगी है  
किस्से-कहानियों के अपने पिटारे समेटे 
नानी मेरी मेरे सिरहाने लगी है 
नित्य-नियम की तरह नानी जी,
आज फिर एक कहानी सुनाने लगी है 
पर 'शिक्षा' तक आते-आते, 
सबको उबासी सी आने लगी है 

... वही 'शिक्षा' हम अब जी रहे हैं 
बाकी सब बातें बेमानी लगी हैं
"बाल्टी भर गयी है, नल बंद कर दो"
कानों तक आती ये आवाज़ें
मुझे फिर वास्तविकता में लाने लगी हैं

Tuesday, May 15, 2012

बात ही कुछ और है...

इनकी प्रसिद्धि बेवजह हर ओर है
पूरे ऑफ़िस में आजकल इनका ही ज़ोर है 
दरवाज़े से ही आगमन की सूचना देते हैं 
बरबस सबका ध्यान खींच लेते हैं 
हम  नाक-मुँह सिकोडें उसके पहले ह़ी 
सब के नज़दीक से निकल जाते हैं
नज़र भले ही ना आये, पर 
एक 'छाप' छोड़ जाते हैं 
दिन-भर झांकते रहते हैं, और  
दो-चार बार बाहर भी आते हैं -  
उपस्तिथि फिर दर्ज़ करवा जाते हैं 
साल भर खूब तड़पाते हैं, पर
सर्दियों में थोड़े 'ठन्डे' पड़ जाते हैं
जिनको सर्दी-झुकाम  है, शायद 
उन पर अल्लाह का करम है 
अन्यथा हर-इक  की नाक-में-दम है 

पर मिश्रा जी को इनकी कहां पड़ी है 
जहां-तहां सुराख हैं और 
एलास्टिक भी अब सड़ी है 
बेचारे अब बस टखनों से लिपटे रहते हैं 
रगड़ते-घिसटते हुए कितनी ज़िल्लत सहते हैं 
पूरे ऑफिस में फिर भी इनका ही दौर है 
मिश्राजी के मोजों की बात ही कुछ और है 

Sunday, March 25, 2012

Women-Oppression & Reasons : My Take

Of late, I have been getting a lot many mailers, emails & SMSs reminding me about the declining Male-Female ratio in our country. A lot many invites for seminars & webinars are also pouring in after a study widely published recently. Many page-3 celebrities are busy covering the front pages of reputed publications, urging us to 'Think' about it & 'act now'. We Indians are particularly blessed with an Analytical &  Argumentative mind. We may not perform (act) in most of the situations but we dissect & analyze it better than anybody else in the whole world. Having bombarded with statements & questions like "Save the Girl-Child" or "How are you going to contribute towards improving Sex-Ratio in our Country?" or the more incisive ones like "Will you marry your boy to a boy?"... or "Shut Sonography centres"... I am forced to ponder on the burning issue of our skewed Sex-Ratio and the probable reasons behind it. For sure our mindset to blame. Pretty recently a High-Court in India suggested castration of Rape accused. I would like to suggest a step further - get their sexes changed altogether!

Anyway these are some of the suggested solutions, more importantly we need to look at the reasons behind such a mindset - of oppression, suppression, deprivation of Women in Indian society, in particular. Men have been suppressing women folk since time immemorial but as we have become more educated, advanced & sophisticated - it has only increased. In one way or other, we are still continuing with it - Sometimes directly, mostly under the garb of various other reasons. Since, I cannot blame myself, I'll blame the SYSTEM for it. System is actually aiding to our psychology of oppressing women, on getting a chance (or creating one). I just want to ask why : -

~ Why do system has to give 30% reservation to Women in competitive exams when I was always ready to let them cheat from my answer-sheet?
~ Why does Indian Railways need to have separate coupe for Ladies, when we were always ready to offer them our own Seats & Berths? (Subject to certain conditions of Age & Looks)
~ Why does a 'Ladies Special' local train timed exactly at the time when you are already getting late to reach the office? (and very well know that Boss won't say a word to the ladies on getting late!)

Actually, I often feel, it is Men which are continued to be discriminated against - like here's an insignificant example, there are Men selling Lingerie but no sales-women selling men's undergarments.

But I don't advocate that men are not to be blamed, and I (on behalf of men, who agree to it) own this responsibility. Since I don't want it to sound more like a 'movement', I leave all other men & would like to introspect personally ..... Why, at times I (if at all I do) behave against the Women? After a lot many thoughts coupled with my limited ability to find a logic to various worldly issues, I could zero-in on some of the reasons. I still believe that to an extent, females themselves have also been instrumental in inviting this oppression & suppression against Women. By 'females' I mean including females of other species too. Deeds of 'other' females have also been reason for our (Men's) attitude towards Women folk. Like, how many of you have been bitten or have heard of being stung by a 'Madhu-Makkha'???... remember it's always a 'Madhu-Makkhi' that stings!

Having said that, I hereby conclude that the single biggest reason for my attitude against Women is nothing but a 'Machchar' (Mosquito) ... the same Machchar that not only gives me many a sleepless nights but has also been responsible for infusing me with Malaria, at least twice. But how come that justifies my angst against Females... wait, yet again, it's only the Female Anopheles Mosquitoes that feed on blood & therefore transmit Malaria, (poor) Male mosquitoes primarily feed on plant nectar... 

मर्द कानों में गुनगुनाते हैं
स्त्रियाँ हर तरफ मंडराती हैं
मौका पा कर, नज़रें बचा कर 
मेरा खून पी जाती हैं
छोड़ी अब ना कोई कसर है
हिट, ऑल-आऊट या बेगौन
इन पर सब बे-असर है

हर एक को यही यकीं है
सबसे ज्यादा मछरों से
उसकी ही दुश्मनी है.
मेरी और बीवी की
आजकल इसी पर ठनी है
मैं कहता हु ये साले
मेरे ऊपर ही जी रहे हैं
तुमसे जो बच जाता है
मेरा खून पी रहे हैं
उसकी दलील में भी दम है-
"चलो तुम्हारा खून किसी को तो भा रहा है
वरना, मेरा तो सालों से सर-चकरा रहा है"

नाना पाटेकर का वो डायलौग
कश्मकश और बढ़ा देता है
"साला एक मच्छर इंसान को
हिजड़ा बना देता है"
फिल्मों का हमारी ज़िन्दगी में
कितना असर है,
मन में कहीं ना कहीं डर है और
साले उसी एक मच्छर पर
अब मेरी नज़र है

बीवी तभी दिलासा देती है
"अरे नर-मच्छर खून नहीं पीते
सिर्फ मादा ही खून पीती है"
मैं क़ातर निगाहों से पूछता हूँ
"ये आश्वासन है या धमकी?"
वो तपाक से वार करती है
"इसमें गुंजाईश कहाँ है भ्रम की?"

'स्त्रियाँ' शायद किसी की नहीं होती,
मच्छर उसे भी परेशान करते हैं-
मादाएं मौका ढूंढती रहती हैं
मर्द सिर्फ कानों के करीब गुज़रते हैं.
एक नया हथियार* आजकल मिल गया है
घर का शक्ति-समीकरण बदल गया है
बेझिझक, दुर्गा की तरह वार करती है
मौत बन कर मच्छरों पर टूट पढ़ती है
मैं डरते हुए पूछ लेता हूँ -
'मादाओं' के जुर्म की सज़ा -
आख़िर 'मर्द' क्यों पाता है?
हाथ में रेकेट लिए, दुकानदार
से पूछा जाता है- "क्यों भैय्या,
इस से बड़ा वाला भी आता है
जो इंसानों पर चल जाता है?"
_________ ______ _______

- * हथियार

Sunday, July 31, 2011

........... ज़्यादा किस्मत वाले ....

मुझ से ज़्यादा किस्मत वाले 
मेरे मुंह के छाले

बुलबुलों की तरह हर तरफ निकल रहे हैं
बिना इजाज़त मुँह में पल रहे हैं
कुछ मीठा-तीखा सा दर्द दे रहे हैं 
आजकल, मुझ से पहले
हर चीज़ का स्वाद ले रहे हैं
मिर्च से इनकी पुरानी दुश्मनी है
नमक से भी इनकी कहाँ बनी है 

ज़बान, जो दातों से
बेवजह लड़ जाती है  
इनको आजकल दिन-रात सहलाती है
दर्द है, तो इनका काफ़ी ज़िक्र है
सबको इनकी ही फ़िक्र है
कोई समझाता है,
बारिश से इनका पुराना रिश्ता है
पर पेट के मामलों में
मुँह क्यों खिंचता है???
किसी का सुझाव है कत्था लगाओ
कोई कहता है ताज़ा दही पी जाओ
तीन-चार दिन के मेहमान हैं
जल्दी चले जायेंगे
निश्चिन्त रहो इस मौसम में
कई मर्तबा आयेंगे-जायेंगे
इस मौसम में मुझ पर
ये घोर अत्याचार है
पकोड़े-भजिये खाना दुश्वार,
चखना दूभर चटनी-अचार है
नथुनों को छेड़ती खुशबुओं का
मज़ा ले नहीं सकता 
मुँह पूरा खुलता नहीं,
गालियाँ दे नहीं सकता

मुँह के दरवाज़े पर डटे हैं,
मानो चुंगी-चौकी वाले
मुझ से ज़्यादा किस्मत वाले
साले.... मेरे मुँह के छाले

Thursday, July 28, 2011

बा..आ..आ s s s आई.......तुम Sign करोगी या नहीं ...?

Everybody... well almost everybody will agree that we Indians are the biggest Hero-Worshipers. We try, find or create Heroes around us and then start worshiping them. Mostly our Heroes come from Film-Stars, Cricketers and Politicians..... add Domestic-Helps (बाई) to the list.

Recently we lost our maid. No she didn't die..... she left our home for greener pastures. Literally, her hubby got a large chunk of land bequeathed to him by his uncle and they are planning to raise some goats, buffaloes and their own kids at the newly acquired Farm. Her move to the new place has however completely disturbed our Home. Maa used to get up at 5.30 am in the morning, all worried (but did nothing). Wife didn't get up early- may be to escape morning worries. Dad was still unaffected. Mom was sudenly on the job, searching for a new Maid. Looked like she'd dedicated all her Mornings, Noons & Evenings to the cause. The perfectionist she is, she had taken the whole process of selecting a Maid (read 'Baai') to altogether a different level. She contended there's hardly anything more Technical than selecting the right Baai! I bet, without letting any of us know, she had secretly evolved a whole set of Techniques and processes to select the right Baai for our Household. She often discussed elaborately that peace & harmony in a home actually depend on the type of Baai one has. Selecting a Baai therefore required a very systematic approach. Some parameters in the process devised by her included :

1. Age & Looks : With men in home, she has to be in the range of 38 to 45 (past youth but still capable of working hard). She should not be too gorgeous for a Baai. (Mom justified "हमको घर का काम करवाना है कोई Beauty Pageant नहीं")
2. Back Ground Check : She should have worked/ working in homes having almost same standard-of-living (so that she doesn't feel alienated)
3. Her Family : What's the main profession in her family? If she has other ladies in her house who are into the same profession (basically having a reserve in case of sick-leave)
4. Salary : She should be paid enough to be not able to afford what we can (Sadist!!)
5. Weak Negotiator : for obvious reasons.

With such guidelines having set, Mom used to be on a daily mission to find a Baai. She had taken to Morning-Walks. She initially used to observe the ladies who were moving on the road during those early hours of morning, then used to fix a Baai-looking target, used to start walking with her for the next couple of days and then finally used to pop the question "तुम झाड़ू-पोछा-बर्तन करने का कितना पैसा लेती हो?"... mostly to find strange expressions on the ladies' faces and a reply like "..अरे, मैं तो इधर सुबह बच्चों को स्कूल छोड़ने आती हूँ "... or .... "मैं और मेरे पति तो सुबह मोर्निंग-वॉक पर निकलते हैं, अलग-अलग ". But this attack by my Mom on unsuspecting Baai-type aunties had certainly made them take notice of their looks in the morning, subsequently, almost all the middle-aged & above ladies were rather better dressed on Morning-Walks.... . After many unsuccessful attempts, Mom dear started approaching the Doodhwallas, Paperwallas, Tailors, Sabziwallas in the area, "भैय्या तुम्हारे परिवार या जान-पहचान में कोई बाई है क्या?"... A few expressed their helplessness, a few more shared the concern... one even went out to share " मैडम, मेरे बीवी किसी के घर काम पर जाती है, पर हमने अपने घर के काम के लिए बाई लगा रखी है "... after repeated efforts and considering her dejected disheveled look  a Chemist, on listening to her plea for 5 minutes said, "... अच्छा... आप क्या क्या कर लोगी वैसे.... देखो मेरी जान-पहचान में किसी को बाई रखनी होगी तो तुमको फ़ोन कर दूंगा .... अपना नंबर दे कर जाओ ..." Mom came running back to the home!

Finally, after SATO (Search, Assess & Target Operation) of about 20 days, she fixed 'Interviews' on a Saturday... then it was extended to Sunday. It was such an 'authoritative' feeling for all of us - as if we are recruiting some executives for some vital positions. Each one of us (Mom, Dad, me & wife) had our own set of questions and wanted to grill the candidates.

There were all sorts of Candidates. Retrospectively, they can be divided into a few broad categories, based on their performance in the 'interview' and interaction. The candidates were informally divided into 3 broad categories, one overlapping the other as The Amma Types, The Mumma Types & The Chhamma Chhamma Types.

1. The Amma Type : This was the preferred lot - for their Work-experience and experiences of Life in general. They were, however, equally authoritative. One of them - Anguri Bai was quite forth coming. As soon as Mom & Wife finished their queries, she took off with very uncomfortable and embarrassing questions like "तुम लोग सुबह कितने बजे सो कर उठते हो?", "मैं तो ये सब काम करुँगी ही, पर फिर तुम लोग दिन भर क्या करोगे?", "ये बाबूजी दिन भर घर पर ही रहते हैं क्या?, इतने बुड्ढे तो नहीं हैं, कोई काम क्यों नहीं करते ?" She was already acting like a matron, on a mission to set things right in my home. She was the 1st to be selected but didn't last for more than 8-10 days, having sufficiently rubbed the egos of one & all. 

2. The Mumma Type : Then one of the other major categories was the 'Mumma' type. They just love their Mumma (Mummy) type devotion & caring for their own family and supposedly live (and work) for it. Mamta Ben, started with a lot of preconditions. Almost every condition was revolving around her family. "... मैं अपने लड़के को सुबह स्कूल छोड़कर आने के बाद ही आऊंगी... उसके बाद १० बजे वापस जा कर मेरे आदमी के लिए टिफिन बनाने का रहेगा...." ... Mom seemed to be agreeing with her. Then she continued "... अच्छा, कभी-कभी मैं शनिवार/ सन्डे नहीं भी आऊंगी... मेरे बच्चे और आदमी की छुट्टी रहती है तो हम लोग घूमने को जाते हैं..". Work-wise also she had many reservations. She would not clean the utensils used for cooking, serving and eating Non-Veg food. Once in a while her little kid will also accompany her on his holidays. Despite a long list of preconditions, the lady seemed genuine and was entrusted with the job. The 1st pinch was felt on the ensuing Saturday when she opted for a leave. On Sunday, she came to the job with her 3 year old son. The Cute-looking-little-boy, Monty, realised that her Mom had already taken a 'Permit' for his assault on our home. The boy demanded that either Cartoon Network or Pogo be tuned on the TV. Suddenly I realised both my parents & wife watching Cartoon Network, helplessly. If that was not enough, Monty further demanded, "... कुरकुरे .....". Trying to pacify him for a good 10 minutes and all of my family member trying to lure him with Gems, Uncle Chips etc, Mamta Ben had to rush down to get a pack of Kurkure. As soon as she restarted, Monty further demanded, " मम्मा.... गाना सुना ना..." and again stuck to it... after a while my Dad started clearing his throat... Mom interrupted with a, ".. ऐ मालिक तेरे बन्दे हम..." and finally, once again, Mamta had to come to our rescue with a "... क्या करूँ की साला character ढीला है..". Somehow the day ended with a unanimous decision that Mamta Ben needs to take care of her family and we better find an alternative.

3. The Chamma-Chamma type : These type were in the age range of 20-35. Highly energetic, full of excuses, keeping-up with the trends in Bollywood, Fashion, TV, Gossip etc. Chhaya was among the shortlisted candidate. Going by the age-range, nobody (neither Mom nor wife) sought my opinion in the matter. I had to pretend 'even I am least interested' and kept myself busy watching TV. Chhaya interrupted, "... अरे B4U Music लगाओ ना..." she started-off with her choice of TV Serials and Reality Shows. Looked like she's struck the chord with my wife & mom both. Then she said " ... देखो मैं सुबह जल्दी नहीं आ सकेगी...सुबह उठो फिर सबको टिफिन दो... फिर आधा-घंटा खुद तैयार हो .... ये सब इतना सुबह सुबह मुझ को नहीं जमता है ...."... a bit too much stress on 'तैयार' planted a good degree of skepticism in the minds of Mom & wife. I was still watching B4U Music, oblivious of the fact that my reactions & expressions were equally judged along with those of Chhaya. She continued "... अरे मैडम, Ready होने को टाइम तो लगेगा ही ना? .... काम पर आना है.... " People around me were obviously getting anxious on this stress on 'Ready'... suddenly 'Dhinka-Chika Dhinka-Chika' from 'Ready' started playing on B4U Music. Chhaya exclaimed, "... ये आसीन किती छान आहे ना...धिन्का-चिका... धिन्का-चिका... हे हे हे हे.....". Wife, who was till now negotiating the compensation at around Rs 2000 per month, suddenly declared "... देखो छाया, १२०० रुपये महिना से ज़्यादा नहीं देंगे... हमारे घर काम ही कितना है???...". Chhaya was awestruck, I was pretending to be ignorant but was thinking 'Stupid lady, saw the Song but didn't see that Centre Fresh-Zabaan pe Lagaam commercial just before that'. She could not bear that crash from Rs 2000 to Rs 1200 a month and the whole song & dance came to an abrupt end.

This whole exercise went on for almost a month. My Mom & Wife were about to commit something to the Gods (मन्नत). But suddenly our good deeds paid-off (by the way our deeds are good enough to be utilised for such purposes only). Aided by a lot of search and valuable inputs from Neighbours, Paper-wallas, Doodh-wallas, Sabzi-wallas we finally found a blend of all the above categories... in Jayanti Baai. She had only 1 major condition .."...मुझे कोई बाई नहीं बुलाने का, मौशी बुलाने का..". My Dad was visibly uncomfortable initially but before he could submit his grievance, I took-out the Police verification form (mandatory for hiring a domestic help) and popped the Question................. " बा..आ..आ s  s  s आई....तुम Sign करोगी या नहीं ...?"  

Tuesday, July 19, 2011

बूढ़ा बरगद

एक बूढ़ा बरगद मुझे अक्सर आवाज़ देता है
कुछ अनमना सा, कुछ उदास, जटायें लटकाए 
बेतरतीब सी शाखों पर चंद पत्ते 
आधे सूखे हुए आधे मुरझाये
एक तरफ से निकलती पगडंडियों को 
देखता टकटकी लगाये
कोई राही काश मुझ तक भी आये

बहुत अरसा कहाँ हुआ जब
हर सरगर्मी का हिस्सा था 
जिसके तले रोज़ इक नया किस्सा था
खेल के मैदान के दूसरे छोर पर अब 
पंचायत का नया भवन बन गया है
ग्यारह कमरों का प्राइमरी स्कूल भी
पास ही तन गया है. 
गाँव में गतिविधियाँ ही चंद हो गयी हैं,
शिक्षा अब दरवाज़ों में बंद हो गयी है

शाखें भी औकात से ज़्यादा बढ़ गयी हैं,
नीम-शीशम-कनेर से बेवजह उलझ गयी हैं
लच्छु नीचे चबूतरे पर खेला, बढ़ा हुआ
गोद में झूला है, आज कुल्हाड़ी लिए खड़ा है
श्यामू का कहना है -
"कोटर में हींग भरवा दो, फिर ४० दिन बाद
नीलाम करवा दो" . पूनम कहती है
"ये बारह-मास झड़ता है, दिन भर अब
बस कचरा ही करता है "
सूरज और गोपाल जो दिन-रात
बरगद के नीचे लोटते थे, 
उनको वही चाँदनी अब खटकती है
बरगद के नीचे अब नींद कहाँ लगती है.
मीरा सिर्फ वट-अमावस पर याद करती है
इक कच्चे धागे की शपथ दे जाती है
और श्यामू की साल भर की उम्र ले जाती है.
पंडितजी कभी कभार इधर भटक जाते हैं
वचनों-प्रवचनों से शर्मिंदा कर जाते हैं.
पटवारी कहता है-
 इधर से पक्का रास्ता आ रहा है और अब
ये बरगद गाँव के विकास में आड़े आ रहा है.
काटेंगे फिर खोद कर जड़ें भी निकाल देंगे
जटायें कुछ काम नहीं आतीं और 
लकड़ियों के उपयोग में संस्कार आड़े आते हैं

अब इंतज़ार बहुत हुआ.
तना भी गलने लगा है, छाल बिखरने लगी हैं,
जटायें भी शिखर से उतर अब,
धरा चूमने मचलने लगी हैं.
अब और इंतज़ार क्यों 
और पैरवी किस बात की?
ये मंज़र अब और ना देख पाऊंगा
मुझे अब बस जल्द कटवा दो, यहाँ से हटवा दो 
आखिर कब तक बर्दाश्त कर पाऊंगा
अगली बारिश में वरना 
ख़ुद-ब-ख़ुद उखड़ जाऊंगा